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*महिलाओं को जन राजनीति को बनाने में लेनी होगी भूमिका*

उमेश कुमार सिंह 

_आरएसएस का सरकार चलाने का माडल महिलाओं को बेमौत मार डालेगा_

दिनकर कपूर
अध्यक्ष, वर्कर्स फ्रंट

हाल ही में उत्तर प्रदेश सरकार ने दो शासनादेश किए है। एक आंगनबाडियों को 62 वर्ष में सेवा से पृथक कर देने और आंगनबाडियों को सामान्य काम में भी चूक होने पर सेवा से पृथक कर देने का आदेश और दूसरा 181 आशा ज्योति वूमेन हेल्पलाइन का 112 पुलिस हेल्पलाइन में विलय कर दिया गया है। आइए तथ्यों की रोशनी में इसे देखा जाए कि कैसे ये शासनादेश महिलाओं को तबाह करने वाला हैैै।
निर्भया कांड़ के बाद बनी न्यायमूर्ति जे. एस. वर्मा कमेटी की संस्तुतियों और धरेलू हिंसा कानून के ध्येय को पूरा करने के लिए भारत सरकार के सार्वभौमिकरण महिला हेल्पलाइन योजना में वर्ष 2016 में उत्तर प्रदेश के 11 जनपदों आगरा, बरेली, इलाहाबाद, गाजियाबाद, गाजीपुर, गोरखपुर, कन्नौज, कानपुर नगर, लखनऊ, मेरठ, वाराणसी में 181 रानी लक्ष्मीबाई आशा ज्योति केंद्र की स्थापना की गई। जिसे 8 मार्च 2016 को महिला दिवस के अवसर पर तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव द्वारा शुरू किया गया। इसमें लखनऊ में 6 सीटर कॉल सेंटर बनाया गया और जनपदों में घरेलू हिंसा समेत अन्य तमाम किस्म के उत्पीड़न की स्थानीय स्तर पर जाकर मदद करने की योजना फोन नंबर 181 से महिलाओं को उपलब्ध कराई गई।
जब योगी जी की सरकार आई तो 2017 में इसे 100 दिन काम की महत्वकांक्षी योजना में लिया गया और प्रदेश के अन्य 64 जिलों में भी इसे लागू करने की घोषणा की गयी। 24 जून 2017 को मुख्यमंत्री ने खुद हरी झंडी दिखाकर इस योजना को शुरू किया। इस योजना के क्रियांवयन के लिए 27 अक्टूबर 2017 को प्रमुख सचिव महिला कल्याण ने बाकायदा शासनादेश द्वारा इसका प्रोटोकाल निर्धारित किया। जिसमें विस्तार से इस योजना की आवश्यकता, उद्देश्य, संचालन, लक्ष्ति समूह, हस्तक्षेप का क्षेत्र और इसके कर्मचारियों की नियुक्ति व सेवा से पृथक करने की व्यवस्था का निर्धारण किया गया। सरकार ने 181 महिला हेल्पलाइन के लिए नारा दिया ‘नम्बर एक समाधान अनेक‘। सरकार ने 24 जुलाई 2018 को जारी शासनादेश में खुद माना कि अप्रैल, 2017 से अब तक 2.55 लाख टेलीफोन काल्स प्राप्त हुई थीं, जिसमें से 16 हजार महिलाओं को रेस्क्यू कर सहायता उपलब्ध करायी गयी है एवं आन स्पाट काउसिंलिंग के माध्यम से 1.20 लाख महिलाओं की समस्याओं का निराकरण कराया गया। अपर मुख्य सचिव महिला कल्याण द्वारा जारी इस आदेश में इसमें कार्यरत महिलाओं के बेहतर कार्य के कारण 181 महिला हेल्पलाइन एवं रेक्यू वैन का प्रचार बड़े-बड़े मोटे अक्षरों में हर स्कूल, कालेज, सरकारी कार्यालय, थानों, ब्लाकों, तहसीलों, सीओ, एसडीएम, डीएम, एसपी कार्यालयों, बस स्टाप, रेलवे स्टेशन, पंचायत भवनों, बारात धरों, प्राइवेट अस्पतालों, शापिंग माल, सिनेमा हाल आदि पर कराने का निर्देश दिया गया।
लेकिन प्रचार करने के बाद सरकार ने किया क्या एक बानगी इसकी भी देखिए। इस महिला हेल्पलाइन को दो मद में पहला रानी लक्ष्मी बाई आशा ज्योति केन्द्र के मद में पिछले वित्तीय वर्ष यानी 2019-20 में 5 करोड़ रूपया आवंटित किया गया था जो खर्च नहीं किया गया और इस वित्तीय वर्ष में महज 20 लाख रुपए दिया गया है वहीं बजट में आंवटित दूसरे मद संख्या 0204 महिला हेल्पलाइन में पिछले वित्तीय वर्ष 2019-20 में 25 करोड़ रूपए आवंटित किया गया था जिसे खर्च नहीं किया गया और आपको जानकर आश्चर्य होगा इस बार बजट में इसे महज एक हजार रूपए दिया गया। परिणामस्वरूप 351 कर्मचारियों जिनमें सभी महिलाएं है उनको वेतन नहीं मिला उसमें से एक कानपुर निवासी उन्नाव की कर्मचारी आयुषी सिंह ने 4 जुलाई 2020 को ट्रेन के सामने कूदकर आत्महत्या कर ली।
अब सरकार ने इसका 112 पुलिस हेल्पलाइन में विलय कर दिया। जो विधि के अनुरूप नहीं है। जिस योजना को सरकार ने धरेलू हिंसा अधिनियम के तहत अंगीकृत किया हो और जिसके लिए प्रोटोकाल बनाया हो। उसे खुद उस प्रोटोकाल का उल्लंधन कर और बिना विधानसभा से पारित किए महज कैबिनेट बैठक के जरिए सरकार खत्म नहीं कर सकती। दरअसल सरकार इसे जानती है कि वह जो कर रही है वह विधि के विरूद्ध है। शायद यहीं वजह है कि उसने 181 वूमेन हेल्पलाइन के सम्बंध में सभी महत्वपूर्ण शासनादेश सरकारी वेबसाइट से हटा दिए है। सरकार का तर्क है कि महिला सशक्तिकरण की एक जैसी कई योेजनाएं चल रही है इसलिए सबको मिलाकर एक में किया जाए। लेकिन सच्चाई इससे दूर है सच यह है कि 112 व 181 दो अलग-अलग प्रकृति व स्वरूप की योजना है औए इन्हें एक में मिला देने से आम उत्पीड़ित महिलाओं को भारी नुकसान होगा। 181 सिर्फ महिलाओं के लिए हेल्पलाइन योजना है जिसमें सीधे महिलाओं द्वारा कार्यवाही की जाती है। वे रेसक्यु करके महिलाओं को सुरक्षित करती है और महिला द्वारा ही उत्पीड़न से बचाने की कार्यवाही के कारण उत्पीड़ित महिलाएं इस प्रक्रिया में ज्यादा सहज महसूस करती है। लेकिन पुलिस द्वारा संचालित 112 के साथ यह नहीं है एक तो यह महिलाओं के लिए मात्र नहीं है यह सारे अपराधों के लिए सामान्य योजना है और दूसरा पुलिस का चरित्र और कार्यशैली क्या है इसके बारे हमें बताने की जरूरत नहीं है सभी इसके बारे में जानते हैं। सिर्फ एक उदाहरण ही काफी होगा कि राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की 2018 की रिपोर्ट के मुताबिक महिलाओं पर हिंसा के मामले में उत्तर प्रदेश सर्वोच्च स्थान रखता है। इसलिए 181 को यदि उत्तर प्रदेश सरकार बंद करती है तो यह न सिर्फ इसमें काम न करने वाली महिलाओं बल्कि प्रदेश की हर उत्पीड़ित महिला पर गहरा आधात होगा।
इसी प्रकार देश में गर्भवती, धात्री, किशोरी बालिकाओं व 6 साल से कम उम्र के बच्चों के कुपोषण को खत्म करने, उन्हें शिक्षित करने के लिए बाल सेवा एवं पुष्टाहार विभाग द्वारा आंगनबाड़ी योजना 1975 से चलाई जा रही है। जिसमें प्रदेश में तीन लाख से ज्यादा आंगनबाड़ी कार्यकत्री व सहायिकाएं और मुख्य सेविकाएं है जो सभी महिलाएं है। कुपोषण दूर करने की इस योजना में काम करने वाली आंगनबाड़ियों की स्थिति तो बेहद नाजुक है। इस सरकार में उन्हें बंधुआ मजदूर बना दिया गया है। बिना बीमा सुरक्षा, मास्क, सेनिटाइजर के उन्हें कोरोना महामारी की जांच में लगा दिया गया है। यह जानते हुए कि आंगनबाड़ी स्वास्थ्य सेवा में प्रशिक्षित नहीं है उनसे कोविड़ के पाजिटिव मरीजों तक के घर जाकर परिवार के हर सदस्य की स्वास्थ्य जांच करायी जा रही। परिणाम यह है कि उन्नाव की आंगनबाड़ी कामिनी निगम तो कोरोना के कार्य के कारण शहीद हो गई और काफी जद्दोजहद के बाद ही जिला प्रशासन ने उनके परिवारजनों को 50 लाख का मुआवजा दिया। बहरहाल कोविड़-19 के लिए भारत सरकार द्वारा कल जारी हुई गाइडलाइन अनलाक 3 में गर्भवती, धात्री व 10 वर्ष से कम उम्र के बच्चों अतिसंवेदनशील समूह माना गया है और आंगनबाड़ियों का काम इन्हीं के बीच में है़। ऐसी स्थिति में और यदि एक भी आंगनबाड़ी संक्रमित हो गयी तो वह इस सारे अति संवेदनशील समूह को प्रभावित कर देगी इसके उदाहरण भी कई जिलों से आने लगे है।
आंगनबाडियों पर नया शासनादेश तो वज्रपात से कम नहीं है इस शासनादेश के अनुसार 62 साल से ज्यादा उम्र की आंगनबाड़ियों को बिना पेंशन, ग्रेच्युटी और सवैतनिक अवकाश का पैसा दिए तत्काल प्रभाव से सेवा से पृथक कर दिया गया है, कार्यरत आंगनबाड़ियों को डाटा फीड न करने और अपने कार्यक्षेत्र में निवास न करने पर सेवा से पृथक करने का आदेश दिया गया है। इस शासनादेश में जिस नियुक्ति सम्बंधी 2012 के शासनादेश का हवाला देकर कार्यवाही की गयी है उसे 7 जनवरी 2013 को ही इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खण्ड़पीठ की सर्विस बेंच ने खारिज कर दिया है। इसके बाद 2013 में खुद संशोधित शासनादेश जिसे सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल किया है उसमें आंगनबाड़ियों की उम्र 65 वर्ष निर्धारित की है। सबसे बड़ा सवाल है कि जिस आंगनबाड़ियों की चयन प्रक्रिया सम्बंधी शासनादेश 2012 के आधार पर आंगनबाड़ियों कि छटंनी की जा रही है। उस पर कानून के जानकारों का मत है कि उसकी शर्ते 2012 के बाद नियुक्त की गयी आंगनबाड़ियों पर लागू होंगी और पूर्व में नियोजित आंगनबाडियों पर इसे लागू करना विधि सम्मत नहीं है।
इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक स्पेशल अपील में सरकार ने 16 दिसम्बर 2003 और 23 मई 2007 को निर्घारित चयन प्रक्रिया में चयनित आंगनवाडी कार्यकत्री व सहायिकाओं के सम्बंध में द्वारा शपथ पत्र कहा है कि आंगनबाड़ियों के कार्य की कोई उम्र सीमा नहीं है और 60 वर्ष पूरा होने के बाद भी आगंनबाड़ी कर्मचारियों और सहायिकाओं को उनके पद से हटाया नहीं जायेगा। यदि वह शारीरिक रूप से काम करने में अक्षम है तो उन्हें कारण बताओं नोटिस देकर ही सेवा से पृथक किया जायेगा। यह बातें इस रिट में हाईकोर्ट की तीन सदस्यी बेंच द्वारा 28 मई 2010 को दिए आदेश तक में उल्लेखित है। यह भी कि निदेशक, बाल विकास सेवा एवं पुष्टाहार, उत्तर प्रदेश, लखनऊ द्वारा दिनांक 20 फरवरी 2013 को जारी आदेश में कहा गया कि आंगनबाड़ी कार्यकत्रियों व सहायिकाओं को सेवा से पृथक कर देना कठोरतम दण्ड़ है। अतएव यदि किसी आंगनबाड़ी कार्यकत्री व सहायिका द्वारा की गयी अनियमितता गम्भीर प्रवृत्ति की है जिसके आधार पर उसे सेवा से पृथक करना अनिवार्य हो तो ऐसा करने से पूर्व उन्हें सुनवाई का अवसर प्रदान करते हुए उसके पक्ष को भी सुनने के उपरांत जिलाधिकारी का अनुमोदन प्राप्त कर अंतिम निर्णय लिया जाना उचित व नैसर्गिक न्याय के अनुरूप होगा। इसी आदेश के अंत में कहा गया कि इस सम्बंध में निदेशालयस्तर से पूर्व में निर्गत सभी आदेश एतदद्वारा निरस्त किये जाते है। लेकिन इसका भी पालन नए शासनादेश में नहीं किया गया है।
हद यह है कि संवैधानिक रूप अनुच्छेद 43 के तहत राज्य का यह कर्तव्य है कि वह हर नागरिक के जीवन की रक्षा करें और कर्मकारों के शिष्ट जीवनस्तर, निर्वाह मजदूरी, काम की दशाएं आदि का प्रयास करे। हाईकोर्ट की लखनऊ खण्ड़पीठ ने अपने आदेश दिनांक 7 जनवरी 2013 में सरकार को आंगनबाड़ियों की सेवा शर्तो की नियमावली बनाने के लिए कहा है कि लेकिन आज तक इसे नहीं किया गया और संविधान व हाईकोर्ट के आदेश की अवहेलना करते हुए बिना नियमावली के पूरे जीवन आंगनबाडी कार्यकत्री और सहायिकाओं से काम कराया जा रहा है और अब सेवानिवृत्त कर उन्हें उनकी समाज सेवा के बदले खाली हाथ घर बैठा दिया जा रहा है।
इसी प्रकार महिलाओं को आत्मनिर्भर, सशक्त बनाने और सुरक्षित व संरक्षित करने के लिए 1989 से चल रही महिला समाख्या योजना को बंद करने के अखबारों में लगातार बयान आ रहे है। जबकि हाईकोर्ट के आदेश के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने धरेलू हिंसा अधिनियम के तहत बकायदा अधिसूचना जारी करके महिला समाख्या को शिक्षा विभाग से समाज कल्याण विभाग में समाहित किया। यहीं नहीं बाल संरक्षण अधिनियम 2015 के तहत भी महिला समाख्या को जिम्मेदारी दी गयी। इन जिम्मेदारियों के बाद महिला व बाल संरक्षण के लिए दुर्लभ ग्रामीण क्षेत्रों में जाकर महिला समाख्या की कार्यकत्रियों ने कार्य किया और सरकार की योजनाओं को क्रियांवित किया। अब एक झटके में इन सबको काम से निकाल बाहर कर दिया गया और उत्पीड़न की इतंेहा यह है कि उन्हें डेढ़ साल से वेतन भी नहीं दिया गया।
दरअसल राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के दर्शन पर चलने वाली भारतीय जनता पार्टी की मोदी व योगी सरकार पूरी अर्थव्यवस्था को देशी विदेशी पूंजी धरानों के लाभ के लिए पुर्नसंयोजित कर रही है। इस पुर्नसंयोजन में मजदूर वर्ग की बड़ी तबाही होगी और उसमें भी महिला श्रमिकों को तो और भी बुरी स्थितियों से गुजरना होगा। वैसे भी आरएसएस अपनी वैचारिकी में महिलाओं को दोयम दर्जे का नागरिक बना देना चाहती है। इनके वैचारिक केन्द्र विनायक दामोदार सावरकर हिन्दुत्व पर लिखी अपनी किताब में हिंदू की परिभाषा में कहते है कि हिंदू वह है जो सिंधु नदी से समुद्र तक सम्पूर्ण भारत वर्ष को अपनी पितृभूमि और पुण्यभूमि मानता हो। स्पष्ट है कि वह एक पितृसत्तात्मक समाज बनाना चाहते हैं जहां महिलाओं का स्थान सिर्फ और सिर्फ दोयम दर्जे के नागरिक का ही होगा। यह हमला राजनीतिक है और इसका जबाब ट्रेड यूनियन के अर्थवादी आंदोलन में नहीं है इसलिए इसका राजनीतिक प्रतिवाद वक्त की जरूरत है। महिलाओं को अपनी नागरिकता, समानता, सम्मान और अधिकार के लिए काम करते हुए एक जन राजनीति को बनाने में भूमिका लेनी होगी और उसका नेतृत्व करना होगा।

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