सोनभद्र

*कोई बेसबब, कोई बेताब, कोई चुप, कोई हैरान*

*कोई बेसबब, कोई बेताब, कोई चुप, कोई हैरान*

*ऐ जिंदगी तेरी महफिल के तमाशे खत्म नहीं होते*
चोपन सोनभद्र
अशोक मद्धेशिया
संवाददाता
गजब का मंजर है हर हाथ में खंजर है। जिधर देखिये देश को लूट रहे रहबर है।वतन परस्ती की सस्ती लोकप्रियता को सुलगते हालात में सुलगा कर खुद के सुखमय जीवन का ताना बाना बुनने के लिये देश की समरसता को आग लगा कर मुस्करा रहे हैं।हर तरफ दहशत है।सबकी जुबान पर ताला है ज़बाब दे रही हिम्म्त है। सच कोई नहीं बोलने वाला है। बदल रहे मौसम के तरह लोग भी मजबूरी में बदल रहे हैं। विकाश तरक्की को भी नजर अंदाज कर एक दुसरे से जल रहे है।सिहरन भरी सिसकन के शानिध्य में जीवन का अनमोल समय धीरे धीरे मानसिक गुलामी को स्वीकार कर रहा है।माहौल इस कदर खौफजदा हैं कि हर कोई डर रहा है।आजादी के बाद यह पहली है सरकार जिसमें हर कोई है बेकार। लगातार किसान आन्दोलन को लेकर बढ़ रही है तकरार।आज भले ही जीद्द पर कायम है किसान लेकिन फायदा कुछ भी नहीं केवल हो रहा है नुकसान।महीनों गुजर गया आन्दोलन सुनामी बनकर स्थिर हो गया बगावत के बादल झूम कर बरस चुके हैं। लोकतन्त्र का सियासी आसमान साफ हो चुका है।अब ब्यवस्था का सूरज गर्मी पैदा करने लगा है। धीरे धीरे महेंद्रसिह टिकैत के लठैत खिसकने लगे हैं।लेकिन कनाडियन किसान अब भी आज भी‌ खालिस्तानी सोच को बुलंदी देने में लगे हैं।और उनको दम भर रहे इस देश मे लोकतंत्र के खरीद्दार। जो अपनी सियासी जमीन किसान आन्दोलन के पीछे तलाश रहे हैं। बेबसी है लाचारी है करोना की महामारी है। हर कोई दुखारी है। महंगाई चरम पर है। सारा फोकस धर्म पर है। साधन संसाधन का अभाव, बढता धनाभाव,आदमी से आदमी के बीच बढ़ रहा दुराव,खत्म होता समभाव, सबका बदलता हाव भाव जीवन के हर रास्ते पर घुमाव दिल के भीतर लिय घाव बैमनश्यता की पोख्ता ईमारत का निर्माण कर रहा है। जिन्दगी के भी अजीब फंसाने है यह दौर गम के झंझावातों से गुजर रहा है, हालात रोज रोज बिगड़ रहा है। कहीं नहीं सुधर रहा है।सियासी नदीयो में हलचल है लोकतंत्र के असमान पर चुनावी मानसूनी बादल छिटपुट बरसात कर रहे हैं।बिहार में बीजेपी गठबन्धन की बनी सरकार तो बंगाल उबलने लगा। बंगाल कि हालत को देखकर तमिलनाडु सम्हलने लगा है। पंजाब में कांग्रेस किसान आन्दोलन को हवा देकर अगला निशाना साध रही है। वहीं हरियाना में खट्टर सरकार के कट्टर दुश्मन किसान आन्दोलन के बहाने आने वाले का पैमाना नाप रहे हैं। आम आदमी खिलौना बनकर रह गया है। फुटबाल के सियासी खिलाड़ी जरुरत के हिसाब से ठोकर मार कर जनमत की फील्ड पर अपना दबदबा कायम कर लेते हैं। आर्थिक तंगी का साम्राज्य बढ़ता जा रहा है लोग महंगाई से कराह रहे है फिर भी मोदी युग में सियासी सूरज का तापमान चढता जा रहा है। लोकतंत्र घायल हैं बेरोजगारी महामारी सबसे बड़ा मसायल है परिवर्तन का पहला प्रहर शुरू हो चुका है। वक़्त मुस्कराते पल पल इस सदी के नये इतिहास की संरचना कर रहा है। बगावत कि आहट आने लगी है। देश का परिवेश नया सन्देश देने को आतुर है। देखिये समय का चक्र किस मुकाम पर रुकता है। स्थिर रहता है या स्थान बदलता है।

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